हिन्दू समाज में कोलों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता रहा है और इनके अपने धार्मिक विश्वासों को हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है।
इनका जीवन बेहद सरल व कठोर परिश्रम से व्यतीत होता है। ये ज्यादातर भूमिहीन हैं और भरपेट भोजन जुटाने के लिये साहूकारों एवं ठेकेदारों के जाल में फंसे हुए है। फिर भी, अपने मनोरंजन की प्रक्रियाओं जैसे सामूहिक गायन, सामूहिक नृत्य व देशी शराब का ये सेवन करते है । आमतौर पर स्त्रियां नृत्य करती ह और पुरुष वाद्ययंत्रों के बजाने की व्यवस्था करते है । उनके विवाह गीत व रीति–रिवाज अन्य गरीब समुदायों के रिवाजों से काफी मिलते–जुलते है ।
उपरोक्त पूरा विवरण उत्तर प्रदेश की कोल जनजातियों के विशिष्ट सांस्कृतिक लक्षण, प्राचीनता, पिछड़ेपन और शर्मीलेपन के लक्षणों को दर्शाता है।
जनजाति दर्जे से वंचित
कोल आदिवासियों को जनजातीय दर्जा दिये जाने के सवाल पर इन पांच–छ: जिले के कोलों के विषय में कुछ और महत्वपूर्ण तथ्य गौर करने योग्य है । यह तो स्पष्ट है कि ये आदिवासी कोल इस इलाके के परम्परागत और पुराने निवासी है । कालान्तर में इलाके में हुए विकास कार्यों में जंगलों के कटने से इनका वनों पर आधारित प्राकृतिक जीवन तो बर्बाद होता ही रहा है, साथ ही साथ ये वनों से बेदखल भी किये जाते रहे है।
इलाके में पिछले लगभग 100–150 सालों में बड़े पैमाने पर गिट्टी, बालू व सिलिका सैण्ड के खनन का काम विकसित हुआ जिस पर सरकार द्वारा निर्मित नए–नए कानूनों के अन्तर्गत इनके वनों को वन संरक्षण अधिनियम के तहत एवं जमीन के खनन कानून के अन्तर्गत संरक्षण करके इनसे छीना जा रहा है। इसके फलस्वरूप खनन कार्य के क्रियान्वयन को ठेकेदारों द्वारा लीज (पट्टा) पर दिया जाने लगा। ये ठेकेदार इन खनन कार्यों को शुरू में इन वंचित कोल जनजातियों तथा अन्य गरीब बिरादरियों से मेहनत करवाकर पूरा करवाते रहे और हाल में कुछ इलाके में इस काम के लिए मशीनों का भी प्रयोग शुरू हो गया। इसका नतीजा यह है कि खनन कार्य में कोल जनजाति व अन्य गरीब मजदूर ठेकेदारों के उधार में फँसकर अर्धबन्धुआ मजदूर के रूप में बेहद कम दाम पर मजदूरी करते रहे है । खनन की ठेकेदारियां या तो इलाके के बड़े जमींदारों के पास है या तो उनसे जुड़े ठेकेदारों के पास है और वे ही उनके काम से समृद्ध होते रहे है।
इस पूरे दौर में इस इलाके में जो पारम्परिक खेती होती थी, कोल जनजातियों का उसमें खेती के मालिक के तौर पर भागीदारी नगण्य रही। इस पूरे क्षेत्र में खेतों के मालिक या तो उच्च जातियों के रहे ह या पिछड़ी जातियों में कुछ लोग है। अत: इलाके में सिंचाई व्यवस्था के विकास के साथ ही खेती के विकास के लाभ से भी यह बिरादरी पूरी तरह से वंचित रह गयी और खेतों में इनकी कुल भूमिका बड़े जमींदारों के बंधुआ के रूप में बनी रही। जाहिर बात है कि ये बड़े जमींदारों के आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का शिकार होते रहे। यद्यपि, इस तरह के शोषण का शिकार इस क्षेत्र की दलित जातियां भी है और काफी हद तक पिछड़ी जाति के गरीब लोग भी इसके शिकार है, परन्तु इस शोषण के सबसे निचले पायदान पर कोल आदिवासी है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि इस इलाके में पाये जाने वाले हलवाहों में सबसे ज्यादा संख्या कोल लोगों की है।
कोल 3
Reviewed by दुनिया मनोवैज्ञानिक
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